santmat sangeet

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गुरु

इनसान कोई काम अपने आप नहीं कर सकता, प्रत्येक काम को सीखने के लिये उस्ताद की जरूरत पड़ती है। जिस तरह अनपढ़ को विद्या की प्राप्ति के लिये उस्ताद की जरूरत होती है, उसी तरह अज्ञानी जीव को परमात्मा की सच्ची भक्ति और उससे मिलाप का सच्चा मार्ग जानने के लिये गुरु की जरूरत होती है।

गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं,
'भूले कउ गुरि मारगि पाइआ ॥
अवर तिआगि हरि भगती लाइआ ॥'

(आदि ग्रन्थ, पृ. 864)

वह परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। कोई जीव अपनी शक्ति, बुद्धि या चतुराई द्वारा उस सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ प्रभु तक नहीं पहुँच सकता। कोई जीव प्रभु से खुद नहीं मिल सकता, जब तक वह प्रभु खुद उसे अपने साथ न मिलाना चाहे। परमात्मा हर जीव के अन्दर है, पर मिलता गुरु की दया या सहायता से है। गुरु अमरदास जी कहते हैं:

घरै अंदरि सभु वथु है बाहरि किछु नाही ॥
गुर परसादी पाईऐ अंतरि कपट खुलाही ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 425)

परमात्मा की प्राप्ति के लिये उससे प्रेम होना जरूरी है। परमात्मा निराकार है और जीव देहधारी है। देहधारी जीव, निराकार परमात्मा से प्रेम नहीं कर सकता। वह परमात्मा गुरु के रूप में प्रकट होकर जीव के अन्दर अपना प्रेम पैदा करता है। प्रेम को केवल प्रेम काट सकता है। जब तक हृदय में सतगुरु के रूप में प्रकट हुए हरि का प्रेम पैदा न हो, जीवात्मा संसार का मोह कभी नहीं त्याग सकती। देहधारी परमात्मा (सतगुरु) का प्रेम ही जीवात्मा को संसार के प्रेम से मुक्त करके अपने साथ मिलाने का असल साधन है। प्रेम-भक्ति से ही जीव का छुटकारा होता है और जीवात्मा को प्रेम-भक्ति का आधार बख़्शने के लिये वह कर्ता खुद साधु-रूप में प्रकट होता है। गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं:

अंध कूप ते काढनहारा ॥ प्रेम भगति होवत निसतारा ॥
साध रूप अपना तनु धारिआ ॥ महा अगनि ते आपि उबारिआ ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 1005)

अनादि काल से परमात्मा से बिछुड़कर रचना में भटक रहे जीव के सिर पर अनगिनत कर्मों का कर्ज है। कोई जीव अपने बल या बुद्धि से यह कर्ज नहीं चुका सकता। वह परमात्मा गुरु का रूप धारण करके जीवात्मा रूपी पुत्र को कर्मों के कर्जे से मुक्त करवाकर उसे अपने साथ मिलाने का प्रबन्ध करता है।

गुरु अमरदास जी कहते हैं:
नानक जिन्ह कउ सतिगुरु मिलिआ तिन्ह का लेखा निबड़िआ ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 435)

गुरु साहिब समझाते हैं कि अनादि काल से प्रभु-मिलाप का एक ही साधन चला आ रहा है। वह साधन शब्द या नाम है जिसकी प्राप्ति सतगुरु से होती है।

गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं:
गुरु तीरथु गुरु पारजातु गुरु मनसा पूरणहारु ॥
गुरु दाता हरि नामु देइ उधरै सभु संसारु ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 52)

गुरु से सन्तों का अभिप्राय अपने समय का जीवित गुरु है। पिछले समय में हो चुके महात्मा पूर्ण होने के बावजूद हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते। वे परमात्मा में समा चुके हैं। वे हमसे उतने ही दूर हैं, जितना परमात्मा। अगर हम उनसे सहायता ले सकते हैं तो फिर परमात्मा से क्यों नहीं ले सकते, जिसमें वे महात्मा समा चुके हैं? या तो हमें गुरु की जरूरत नहीं है या अपने समय के ऐसे पूर्ण सतगुरु की जरूरत है, जो परमात्मा से भी मिला हुआ हो और देह-स्वरूप में भी हमारे सामने हो। हमें ऐसे पूर्ण सन्त-सतगुरु की जरूरत है, जो हमारी लिव अन्तर में नाम से जोड़ सके और जिसके ध्यान द्वारा हम अपने मन और आत्मा को अन्तर में एकाग्र करके परमात्मा के शब्द या नाम से जोड़ सकें। यही कारण है कि सन्तों-महात्माओं की अनेक गद्दियाँ चलती हैं। गुरु नानक साहिब, कबीर साहिब, बाबा फ़रीद आदि की गद्दियों पर अनेक पूर्ण महात्मा आये क्योंकि जीव अपने समय के जीवित सतगुरु से ही मार्ग-दर्शन और सहायता प्राप्त कर सकता है।

 

गुरु और शिष्य का रिश्ता शिष्य पर नहीं, गुरु पर आधारित है। हम अपनी तरफ से सोच लेते हैं कि पिछले समय में हुआ कोई महात्मा हमारा गुरु या मार्ग- दर्शक है। यह केवल हमारे मन का भ्रम है क्योंकि हमें उस महात्मा की तरफ़ से यह उत्तर नहीं मिलता कि उसने हमें अपनी शरण में लेना स्वीकार कर लिया है। यदि लोग पूर्व में हुए महात्माओं की टेक द्वारा भवसागर से पार हो सकते तो संसार के आरम्भ में एक महात्मा अवतरित हो जाता और उसके बाद किसी दूसरे महात्मा को संसार में आने की आवश्यकता नहीं होती।

संसार के सब सन्तों ने गुरु-प्रसाद या सन्तों की दया को जीव की मुक्ति का साधन माना है। दया दाता की प्रसन्नता पर आधारित होती है, भिखारी की इच्छा पर नहीं। अगर कोई व्यक्ति अपनी मान्यता के पूर्व समय में हुए किसी महात्मा की शरण से पार हो सकता है, तो संसार के सारे परमार्थी साहित्य में से सतगुरु की दया या मुर्शिद की रहमत के सिद्धान्त को खारिज करना पड़ेगा। अगर जीव अपनी मर्जी के किसी महात्मा में टेक रखकर भवसागर से पार हो सकता हो तो कोई भी जीव परमात्मा की जुदाई में न भटकता फिरे। गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं:

आपण लीआ जे मिलै विछुड़ि किउ रोवंनि ॥
साधू संगु परापते नानक रंग माणंनि ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 134)

उस कर्तापुरुष ने खुद यह विधान बनाया है कि कोई जीव सतगुरु के बिना उससे मिलाप नहीं कर सकता। गुरु अमरदास जी कहते हैं,

धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 556)

पूर्ण सन्तों ने सावधान किया है कि गुरु होना ही काफ़ी नहीं, गुरु पूर्ण होना चाहिये। पूरा गुरु वह है, जो अपनी आत्मा परमात्मा में अभेद करके उसका रूप हो चुका है। केवल ऐसा महात्मा ही दूसरे जीवों को सच्ची प्रभु-भक्ति द्वारा प्रभु से मिला सकता है। गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं:

सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥
तिस कै संगि सिखु उधेरै नानक हरि गुन गाउ ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 286)

पूर्ण गुरु को ही सन्तों ने शब्द-स्वरूपी, शब्द-अभ्यासी सतगुरु कहकर पुकारा है। स्वामी जी महाराज कहते हैं:

गुरू सोई जो शब्द सनेही। शब्द बिना दूसर नहिं सेई ॥
शब्द कमावे सो गुरु पूरा। उन चरनन की होजा धूरा ॥
और पहिचान करो मत कोई। लक्ष अलक्ष न देखो सोई ॥
शब्द भेद लेकर तुम उनसे। शब्द कमाओ तुम तन मन से ॥

(सार बचन, 16:1:5,9-11)

आप फ़रमाते हैं कि महात्मा के क़ौम, मज़हब मुल्क आदि को न देखो, केवल यह देखो कि वह शब्द स्वरूपी और शब्द-अभ्यासी हो।

पूर्ण सन्त-सतगुरु प्रभु का रूप होता है, वह प्रभु की तरह अपनी किसी भी दात के लिये कोई क़ीमत नहीं माँगता। वह अपनी शरण में आनेवाले जीवों को प्रभु से मिलाप की युक्ति मुफ्त सिखाता है। वह जीवों की परमार्थी सेवा निस्वार्थ भाव से करता है। वह अपनी हक़ हलाल की कमाई पर गुजारा करता है और अपनी नेक कमाई भी दूसरों में बाँटकर खाता है। गुरु नानक साहिब की वाणी है:

गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ ॥ ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ॥
घालि खाइ किछु हथहु देइ ॥ नानक राहु पछाणहि सेइ ॥

(आदि ग्रन्थ, पृ. 1245)

आप सावधान करते हैं कि शिष्य के धन पर गुजारा करनेवाले व्यक्ति के चरणों पर भूले-भटके भी माथा नहीं टेकना चाहिये। हमें सिर्फ़ वही महात्मा रास्ता दिखा सकता
है, जो खुद हक़ हलाल की कमाई करे और अपनी नेक कमाई भी दूसरों के साथ बाँटकर खाये।

वाणी

1. ੴ सतिगुर प्रसादि ।

- गुरु नानक देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 8)

2. सचै सबदि सची पति होई ॥ बिनु नावै मुकति न पावै कोई॥
बिनु सतिगुर को नाउ न पाए प्रभि ऐसी बणत बणाई हे॥

- गुरु अमरदास (आदि ग्रन्थ, पृ. 1046)

3. भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥

- गुरु नानक देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 59)

4. धुरि खसमै का हुकमु पइआ विणु सतिगुर चेतिआ न जाइ ॥
सतिगुरि मिलिऐ अंतरि रवि रहिआ सदा रहिआ लिव लाइ ॥

- गुरु अमरदास (आदि ग्रन्थ, पृ. 556)

5. जिस का ग्रिहु तिनि दीआ ताला कुंजी गुर सउपाई ॥
अनिक उपाव करे नही पावै बिनु सतिगुर सरणाई ॥

- गुरु अर्जुन देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 205)

6.कहु नानक प्रभि इहै जनाई ॥
बिनु गुर मुकति न पाईऐ भाई ॥

- गुरु अर्जुन देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 864)

7. सतिगुर ते हरि पाईऐ भाई ॥
अंतरि नामु निधानु है पूरै सतिगुरि दीआ दिखाई ॥

- गुरु अमरदास (आदि ग्रन्थ, पृ. 425)

8. संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ॥
नाम सनेही संत नाम को वही मिलावें।
वे हैं वाकिफकार मिलन की राह बतावें ॥
जप तप तीरथ बरत करै बहुतेरा कोई।
बिना वसीला संत नाम से भेंट न होई ॥
कोटिन करें उपाय भटक सगरौ से आवै।
संत दुवारे जाय नाम को घर तब पावै ॥
पलटू यह है प्रान पर आदि सेती औ अंत।
संत सनेही नाम है नाम सनेही संत ॥

(पलटू साहिब की बानी, भाग 1, कुण्डली 14)

9. जग में दो तारन कूँ नीका।
एक तौ ध्यान गुरू का कीजे दूजे नाम धनी का ॥

(चरनदास की बानी भाग, 2, पृ. 25)

10. जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥
राम नामु संतन घरि पाइआ ॥

 गुरु अर्जुन देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 283)

11. अंधला जौ पाइहि, तौ सिष भयौ निरंध।
रविदास गुर ग्यांन चाषु बिना, किमि मिटई भ्रम फंद ॥

 (रविदास-वाणी, साखी 15)

12. कोटिन्ह दान जो पुन्य करे औ कोटिन्ह तीरथ और रटना।
कोटिन्ह वेद पुरान सुने औ कोटिन्ह जाप जपे रसना।
कोटिन्ह तप जो दर्प करे औ फिरे उधार तेजे बसना।
संत से नेह ना नाम निःअक्षर मूल बिना कैसे तरना।

 (दरिया, हस्तलिखित ग्रन्थ, पृ.24)

13. बिन मुर्शिद कामल बुलया, तेरी ऐवें गई इबादत कीती।

 (साईं बुल्लेशाह, पृ. 315)

14. तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसीदा के।
राहे-निजात दूर है उस पार देखना ॥

 (तुलसी साहिब, सन्तों की बानी, पृ. 304)

15. सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥
बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥

 गुरु अर्जुन देव (आदि ग्रन्थ, पृ. 495)

ਗੁਰੂ

ਇਨਸਾਨ ਕੋਈ ਵੀ ਕੰਮ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਉਹਨੂੰ ਹਰ ਕੰਮ ਸਿੱਖਣ ਲਈ ਉਸਤਾਦ ਦੀ ਲੋੜ ਪੈਂਦੀ ਹੈ। ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਹਰ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਗਿਆਨ, ਗਿਆਨੀ ਤੋਂ ਅਗਿਆਨੀ ਵੱਲ ਚੱਲਦਾ ਹੈ। ਜਿਸ ਨੂੰ ਕੰਮ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ, ਉਹ ਸਿੱਖਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਿਸ ਨੂੰ ਆਉਂਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਅਨਪੜ੍ਹ ਨੂੰ ਵਿੱਦਿਆ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਉਸਤਾਦ ਦੀ ਲੋੜ ਪੈਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਗਿਆਨੀ ਜੀਵ ਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਸੱਚੀ ਭਗਤੀ ਅਤੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਦੇ ਸੱਚੇ ਸਾਧਨ ਅਤੇ ਮਾਰਗ ਦਾ ਗਿਆਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਲਈ ਗੁਰੂ ਦੀ ਲੋੜ ਪੈਂਦੀ ਹੈ।

ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ,
‘ਭੂਲੇ ਕਉ ਗੁਰਿ ਮਾਰਗਿ ਪਾਇਆ॥
ਅਵਰ ਤਿਆਗਿ ਹਰਿ ਭਗਤੀ ਲਾਇਆ॥'

(-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 864)

ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ, ਸਰਬ-ਗਿਆਤਾ ਅਤੇ ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਹੈ। ਕੋਈ ਜੀਵ ਆਪਣੀ ਸ਼ਕਤੀ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਬੁੱਧੀ, ਚਤੁਰਾਈ ਜਾਂ ਗਿਆਨ ਨਾਲ ਉਸ ਤਕ ਨਹੀਂ ਪਹੁੰਚ ਸਕਦਾ। ਜਦ ਤਕ ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾ ਚਾਹੇ ਕਦੇ ਵੀ ਕੋਈ ਜੀਵ ਆਪਣੇ ਆਪ ਉਹਦੇ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕਦਾ। ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:

ਘਰੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਵਥੁ ਹੈ ਬਾਹਰਿ ਕਿਛੁ ਨਾਹੀ॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦੀ ਪਾਈਐ ਅੰਤਰਿ ਕਪਟ ਖੁਲਾਹੀ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 425

ਪਰਮਾਤਮਾ ਹਰ ਜੀਵ ਦੇ ਅੰਦਰ ਹੈ ਪਰ ਉਹਦੇ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਰੂਪ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਉਹਦੇ ਨਾਲ ਪ੍ਰੇਮ ਹੋਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਿਰਾਕਾਰ ਹੈ ਅਤੇ ਜੀਵ ਦੇਹਧਾਰੀ ਹੈ। ਦੇਹਧਾਰੀ ਜੀਵ ਨਿਰਾਕਾਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਪ੍ਰੇਮ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਗੁਰੂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟ ਹੋ ਕੇ ਜੀਵ ਦੇ ਅੰਦਰ ਆਪਣਾ ਪ੍ਰੇਮ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰੇਮ ਨੂੰ ਸਿਰਫ਼ ਪ੍ਰੇਮ ਕੱਟ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਜਦ ਤਕ ਹਿਰਦੇ ਵਿਚ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰ ਕੇ ਪ੍ਰਗਟ ਹੋਏ। ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਪ੍ਰੇਮ ਪੈਦਾ ਨਾ ਹੋਵੇ, ਜੀਵਾਤਮਾ ਕਦੇ ਵੀ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਮੋਹ ਦਾ ਤਿਆਗ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:

ਅੰਧ ਕੂਪ ਤੇ ਕਾਢਨਹਾਰਾ॥ ਪ੍ਰੇਮ ਭਗਤਿ ਹੋਵਤ ਨਿਸਤਾਰਾ॥
ਸਾਧ ਰੂਪ ਅਪਨਾ ਤਨੁ ਧਾਰਿਆ॥ ਮਹਾ ਅਗਨਿ ਤੇ ਆਪਿ ਉਬਾਰਿਆ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 1005

ਦੇਹਧਾਰੀ ਪਰਮਾਤਮਾ ਭਾਵ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦਾ ਪ੍ਰੇਮ ਹੀ ਜੀਵਾਤਮਾ ਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਮੋਹ ਤੋਂ ਛੁਡਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਮਿਲਾਉਣ ਦਾ ਅਸਲ ਸਾਧਨ ਹੈ। ਜੀਵ ਦਾ ਛੁਟਕਾਰਾ ਸਿਰਫ਼ ਪ੍ਰੇਮਾ-ਭਗਤੀ ਦੁਆਰਾ ਹੀ ਸੰਭਵ ਹੈ ਇਸ ਲਈ ਜੀਵਾਤਮਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰੇਮਾ-ਭਗਤੀ ਲਈ ਅਧਾਰ ਜਾਂ ਸਹਾਰਾ ਬਖ਼ਸ਼ਣ ਲਈ ਉਹ ਕਰਤਾ ਖ਼ੁਦ ਸਾਧੂ ਜਾਂ ਗੁਰੂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।

ਅਨਾਦੀ ਕਾਲ ਤੋਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਵਿੱਛੜ ਕੇ ਰਚਨਾ ਵਿਚ ਭਟਕ ਰਹੇ ਜੀਵ ਦੇ ਸਿਰ ਉੱਤੇ ਅਨੰਤ ਕਰਮਾਂ ਦਾ ਕਰਜ਼ਾ ਹੈ। ਕੋਈ ਜੀਵ ਆਪਣੇ ਬਲ ਜਾਂ ਬੁੱਧੀ ਨਾਲ ਇਹ ਕਰਜ਼ਾ ਨਹੀਂ ਲਾਹ ਸਕਦਾ।

ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ ਜੀ ਦੀ ਬਾਣੀ ਹੈ:
ਨਾਨਕ ਜਿਨ ਕਉ ਸਤਿਗੁਰੂ ਮਿਲਿਆ ਤਿਨ ਕਾ ਲੇਖਾ ਨਿਬੜਿਆ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 435

ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਗੁਰੂ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰ ਕੇ ਜੀਵਾਤਮਾ ਰੂਪੀ ਪੁੱਤਰ ਨੂੰ ਕਰਮਾਂ ਦੇ ਕਰਜ਼ੇ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਵਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਮਿਲਾਉਣ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਰਦਾ ਹੈ।

ਆਪ ਸਮਝਾਉਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਅਨਾਦੀ ਕਾਲ ਤੋਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਦਾ ਇੱਕੋ ਸਾਧਨ ਚਲਿਆ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਹ ਸਾਧਨ ਸ਼ਬਦ ਜਾਂ ਨਾਮ ਹੈ ਜਿਸ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਸਤਿਗੁਰੂ ਤੋਂ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:

ਗੁਰੁ ਤੀਰਥੁ ਗੁਰੁ ਪਾਰਜਾਤੁ ਗੁਰੁ ਮਨਸਾ ਪੂਰਣਹਾਰੁ ॥ ਗੁਰੁ ਦਾਤਾ
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਦੇਇ ਉਧਰੈ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 52

ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਸੰਤਾਂ ਦਾ ਭਾਵ ਆਪਣੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਜੀਵਤ ਗੁਰੂ ਤੋਂ ਹੈ। ਪੂਰਬਲੇ ਵਕਤਾਂ ਵਿਚ ਹੋਏ ਮਹਾਤਮਾਂ ਪੂਰਨ ਸਨ ਪਰ ਉਹ ਅੱਜ ਸਾਡੀ ਕੋਈ ਸਹਾਇਤਾ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ। ਉਹ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਸਮਾ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਉਹ ਸਾਡੇ ਤੋਂ ਓਨੇ ਹੀ ਦੂਰ ਹਨ, ਜਿੰਨਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਹੈ। ਜੇ ਅਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਸਹਾਇਤਾ ਲੈ ਸਕਦੇ ਹਾਂ ਤਾਂ ਫਿਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਲੈ ਸਕਦੇ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਉਹ ਮਹਾਤਮਾਂ ਸਮਾ ਚੁੱਕੇ ਹਨ? ਜਾਂ ਤਾਂ ਸਾਨੂੰ ਗੁਰੂ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ ਅਤੇ ਜੇ ਹੈ ਤਾਂ ਆਪਣੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਐਸੇ ਪੂਰਨ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ, ਜਿਹੜਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਵੀ ਮਿਲਿਆ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਦੇਹ ਸਰੂਪ ਵਿਚ ਸਾਡੇ ਸਾਹਮਣੇ ਵੀ ਮੌਜੂਦ ਹੋਵੇ। ਸਾਨੂੰ ਐਸੇ ਸੰਤ- ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ ਜੋ ਸਾਡੀ ਲਿਵ ਅੰਦਰ ਨਾਮ ਨਾਲ ਜੋੜ ਸਕੇ ਅਤੇ ਜਿਸ ਦੇ ਧਿਆਨ ਦੁਆਰਾ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਮਨ ਅਤੇ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਅੰਦਰ ਇਕਾਗਰ ਅਤੇ ਥਿਰ ਕਰ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ ਨਾਮ ਜਾਂ ਸ਼ਬਦ ਨਾਲ ਜੋੜ ਸਕੀਏ। ਇਹੋ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਸੰਤਾਂ-ਮਹਾਤਮਾਂ ਦੀਆਂ ਅਨੇਕ ਗੱਦੀਆਂ ਚੱਲਦੀਆਂ ਹਨ। ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ, ਕਬੀਰ ਸਾਹਿਬ, ਬਾਬਾ ਫ਼ਰੀਦ ਆਦਿ ਦੀਆਂ ਗੱਦੀਆਂ ਉੱਤੇ ਅਨੇਕ ਪੂਰਨ ਮਹਾਤਮਾਂ ਆਏ ਕਿਉਂਕਿ ਜੀਵ ਆਪਣੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਜੀਵਤ ਸਤਿਗੁਰੂ ਤੋਂ ਹੀ ਅਗਵਾਈ ਅਤੇ ਸਹਾਇਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ।

 

ਗੁਰੂ ਅਤੇ ਸ਼ਿਸ਼ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਅਸਲ ਵਿਚ ਸ਼ਿਸ਼ ਉੱਤੇ ਨਹੀਂ, ਗੁਰੂ ਉੱਤੇ ਨਿਰਭਰ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਵੱਲੋਂ ਸੋਚ ਲੈਂਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਪੂਰਬਲੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਹੋਇਆ ਕੋਈ ਮਹਾਤਮਾ ਸਾਡਾ ਗੁਰੂ ਜਾਂ ਆਗੂ ਹੈ। ਇਹ ਸਿਰਫ਼ ਸਾਡੇ ਮਨ ਦਾ ਭਰਮ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਸਾਨੂੰ ਉਸ ਮਹਾਤਮਾ ਵੱਲੋਂ ਕੋਈ ਹੁੰਗਾਰਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦਾ ਕਿ ਉਹਨੇ ਸਾਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿਚ ਲੈਣਾ ਮਨਜ਼ੂਰ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਜੇ ਲੋਕ ਪੂਰਬਲੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਹੋਏ ਕਿਸੇ ਮਹਾਤਮਾ ਦੀ ਟੇਕ ਨਾਲ ਭਵ-ਸਾਗਰ ਤੋਂ ਪਾਰ ਜਾ ਸਕਦੇ ਤਾਂ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਸ਼ੁਰੂ ਵਿਚ ਇਕ ਮਹਾਤਮਾ ਆ ਜਾਂਦਾ ਅਤੇ ਉਸ ਤੋਂ ਬਾਦ ਕਿਸੇ ਦੂਸਰੇ ਮਹਾਤਮਾ ਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਵਿਚ ਆਉਣ ਦੀ ਲੋੜ ਨਾ ਪੈਂਦੀ। ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਸਭਸੰਤਾਂ ਨੇ ਗੁਰ-ਪ੍ਰਸਾਦ ਅਰਥਾਤ ਗੁਰੂ ਦੀ ਦਇਆ-ਮਿਹਰ ਨੂੰ ਜੀਵ ਦੀ ਮੁਕਤੀ ਦਾ ਸਾਧਨ ਮੰਨਿਆ ਹੈ। ਦਇਆ, ਦਾਤਾ ਦੀ ਮਰਜ਼ੀ, ਰਜ਼ਾ ਜਾਂ ਪ੍ਰਸੰਨਤਾ ਉੱਤੇ ਨਿਰਭਰ ਕਰਦੀ ਹੈ, ਭਿਖਾਰੀ ਦੀ ਇੱਛਾ ਉੱਤੇ ਨਹੀਂ। ਜੇ ਕੋਈ ਵਿਅਕਤੀ ਆਪਣੀ ਮਾਨਤਾ ਦੇ ਪੂਰਬਲੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਹੋਏ ਕਿਸੇ ਮਹਾਤਮਾ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਨਾਲ ਭਵ-ਸਾਗਰ ਤੋਂ ਪਾਰ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਸਾਰੇ ਪਰਮਾਰਥੀ ਸਾਹਿਤ ਵਿੱਚੋਂ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਦਇਆ ਜਾਂਮੁਰਸ਼ਦ ਦੀ ਰਹਿਮਤ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਨੂੰ ਖਾਰਜ ਕਰਨਾ ਪਵੇਗਾ । ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:

ਆਪਣ ਲੀਆ ਜੇ ਮਿਲੈ ਵਿਛੁੜਿ ਕਿਉ ਰੋਵੰਨਿ॥
ਸਾਧੂ ਸੰਗੁ ਪਰਾਪਤੇ ਨਾਨਕ ਰੰਗ ਮਾਣੰਨਿ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 134

ਜੇ ਜੀਵ ਆਪਣੀ ਮਰਜ਼ੀ ਦੇ ਕਿਸੇ ਮਹਾਤਮਾ ਦੀ ਟੇਕ ਨਾਲ ਭਵ-ਸਾਗਰ ਤੋਂ ਪਾਰ ਜਾ ਸਕਦਾ ਤਾਂ ਕੋਈ ਜੀਵ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਜੁਦਾਈ ਵਿਚ ਨਾ ਭਟਕਦਾ ਫਿਰਦਾ।

ਧੁਰਿ ਖਸਮੈ ਕਾ ਹੁਕਮੁ ਪਇਆ ਵਿਣੁ ਸਤਿਗੁਰ ਚੇਤਿਆ ਨ ਜਾਇ॥

- ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 556

ਉਸ ਕਰਤਾਪੁਰਖ ਨੇ ਖ਼ੁਦ ਇਹ ਵਿਧਾਨ ਬਣਾਇਆ ਹੈ ਕਿ ਕੋਈ ਜੀਵ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੇ ਬਿਨਾਂ ਉਸ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:
ਪੂਰਨ ਸੰਤਾਂ ਨੇ ਸਾਵਧਾਨ ਕੀਤਾ ਹੈ ਕਿ ਗੁਰੂ ਹੋਣਾ ਕਾਫ਼ੀ ਨਹੀਂ, ਗੁਰੂ ਪੂਰਾ ਹੋਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਉਹ ਹੈ ਜੋ ਆਪਣੀ ਆਤਮਾ, ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਅਭੇਦ ਕਰ ਕੇ ਉਹਦਾ ਰੂਪ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਹੈ। ਸਿਰਫ਼ ਅਜਿਹਾ ਪੂਰਨ ਪੁਰਖ ਹੀ ਦੂਸਰੇ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਸੱਚੀ ਪ੍ਰਭੂ-ਭਗਤੀ ਦੁਆਰਾ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ ਜੀ ਦੀ ਬਾਣੀ ਹੈ:

ਸਤਿ ਪੁਰਖੁ ਜਿਨਿ ਜਾਨਿਆ ਸਤਿਗੁਰੁ ਤਿਸ ਕਾ ਨਾਉ॥
ਤਿਸ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਿਖੁ ਉਧਰੈ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥

-ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 286

ਪੂਰਾ ਗੁਰੂ ਖ਼ੁਦ ਸ਼ਬਦ ਦੀ ਕਮਾਈ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਆਤਮਾ ਸ਼ਬਦ ਵਿਚ ਅਭੇਦ ਕਰ ਕੇ ਸ਼ਬਦ-ਰੂਪ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿਚ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਸੁਰਤ ਸ਼ਬਦ ਨਾਲ ਜੋੜ ਕੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਕਰਨ ਦੀ ਜੁਗਤੀ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਅਜਿਹੇ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਸੰਤਾਂ-ਮਹਾਤਮਾਂ ਨੇ ਸ਼ਬਦ-ਸਰੂਪੀ, ਸ਼ਬਦ-ਅਭਿਆਸੀ ਗੁਰੂ ਵੀ ਕਿਹਾ ਹੈ। ਸੁਆਮੀ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:

ਗੁਰੂ ਸੋਈ ਜੋ ਸ਼ਬਦ ਸਨੇਹੀ। ਸ਼ਬਦ ਬਿਨਾ ਦੁਸਰ ਨਹਿੰ ਸੇਈ॥
ਸ਼ਬਦ ਕਮਾਵੇ ਸੋ ਗੁਰੁ ਪੂਰਾ । ਉਨ ਚਰਨਨ ਕੀ ਹੋ ਜਾ ਧੂਰਾ॥
ਔਰ ਪਹਿਚਾਨ ਕਰੋ ਮਤ ਕੋਈ। ਲੱਛ ਅਲੱਛ ਨ ਦੇਖੇ ਸੋਈ॥
ਸ਼ਬਦ ਭੇਦ ਲੇਕਰ ਤੁਮ ਉਨ ਸੇ। ਸ਼ਬਦ ਕਮਾਵੇ ਤੁਮ ਤਨ ਮਨ ਸੇ॥
शब्द भेद लेकर तुम उनसे। शब्द कमाओ तुम तन मन से ॥

-ਸਰਬਚਨ 16:1:5, 9-11

ਆਪ ਫਰਮਾਉਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਮਹਾਤਮਾ ਦੇ ਕੰਮ, ਮਜ੍ਹਬ, ਮੁਲਕ ਆਦਿ ਨਾ ਦੇਖੋ, ਸਿਰਫ਼ ਇਹ ਦੇਖੋ ਕਿ ਉਹ ਸ਼ਬਦ-ਸਰੂਪੀ ਅਤੇ ਸ਼ਬਦ-ਅਭਿਆਸੀ ਹੋਵੇ। ਪੂਰਾ ਸਤਿਗੁਰੂ ਪਰਮੇਸ਼ਰ ਦਾ ਰੂਪ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਪਰਮੇਸ਼ਰ ਵਾਂਗ ਹੀ ਆਪਣੀ ਕਿਸੇ ਦਾਤ ਦੀ ਕੋਈ ਕੀਮਤ ਵਸੂਲ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਉਹ ਆਪਣੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿਚ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਦੀ ਜੁਗਤੀ ਮੁਫ਼ਤ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪਰਮਾਰਥੀ ਸੇਵਾ ਬਿਨਾਂ ਸਵਾਰਥ ਦੇ ਭਾਵ ਨਾਲ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਆਪਣਾ ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਆਪਣੀ ਨੇਕ ਕਮਾਈ ਨਾਲ ਕਰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਕਮਾਇਆ ਹੋਇਆ ਧਨ ਦੂਜਿਆਂ ਨਾਲ ਵੰਡ ਕੇ ਖਾਂਦਾ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ ਦੀ ਬਾਣੀ ਹੈ:

ਗੁਰੁ ਪੀਰੁ ਸਦਾਏ ਮੰਗਣ ਜਾਇ॥ ਤਾ ਕੈ ਮੂਲਿ ਨ ਲਗੀਐ ਪਾਇ॥
ਘਾਲਿ ਖਾਇ ਕਿਛੁ ਹਥਹੁ ਦੇਇ॥ ਨਾਨਕ ਰਾਹੁ ਪਛਾਣਹਿ ਸੇਇ॥

- ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 1245

ਆਪ ਸਾਵਧਾਨ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਸਿੱਖਾਂ-ਸੇਵਕਾਂ ਦੇ ਧਨ ਉੱਤੇ ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਵਿਅਕਤੀ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਉੱਤੇ ਭੁੱਲੇ ਭਟਕੇ ਵੀ ਮੱਥਾ ਨਹੀਂ ਟੇਕਣਾ ਚਾਹੀਦਾ। ਸਾਨੂੰ ਸਿਰਫ਼ ਉਹੀ ਮਹਾਤਮਾ ਸੱਚਾ ਰਾਹ ਦਿਖਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਿਹੜਾ ਖ਼ੁਦ ਹੱਕ- ਹਲਾਲ ਦੀ ਕਮਾਈ ਉੱਤੇ ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਕਰਦਾ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਨੇਕ ਕਮਾਈ ਵੀ ਦੂਸਰਿਆਂ ਨਾਲ ਵੰਡ ਕੇ ਖਾਂਦਾ ਹੋਵੇ।

ਬਾਣੀ

1. ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ॥

- ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ (आदि ग्रन्थ, पृ. 8)

2. ਸਚੈ ਸਬਦਿ ਸਚੀ ਪਤਿ ਹੋਈ॥ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਮੁਕਤਿ ਨ ਪਾਵੈ ਕੋਈ॥
ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਕੋ ਨਾਉ ਨ ਪਾਏ ਪ੍ਰਭਿ ਐਸੀ ਬਣਤ ਬਣਾਈ ਹੇ॥

-ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 1046)

3. ਭਾਈ ਰੇ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਗਿਆਨੁ ਨ ਹੋਇ॥
ਪੂਛਹੁ ਬ੍ਰਹਮੇ ਨਾਰਦੈ ਬੇਦ ਬਿਆਸੈ ਕੋਇ॥

-ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 59)

4. ਧੁਰਿ ਖਸਮੈ ਕਾ ਹੁਕਮੁ ਪਇਆ ਵਿਣੁ ਸਤਿਗੁਰ ਚੇਤਿਆ ਨ ਜਾਇ॥
ਸਤਿਗੁਰਿ ਮਿਲਿਐ ਅੰਤਰਿ ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸਦਾ ਰਹਿਆ ਲਿਵ ਲਾਇ॥

-ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 556)

5. ਜਿਸ ਕਾ ਗ੍ਰਿਹੁ ਤਿਨਿ ਦੀਆ ਤਾਲਾ ਕੁੰਜੀ ਗੁਰ ਸਉਪਾਈ॥
ਅਨਿਕ ਉਪਾਵ ਕਰੇ ਨਹੀ ਪਾਵੈ ਬਿਨੁ ਸਤਿਗੁਰ ਸਰਣਾਈ ॥

- ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ.  205)

6.ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭਿ ਇਹੈ ਜਨਾਈ॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੁਕਤਿ ਨ ਪਾਈਐ ਭਾਈ॥

- ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 864)

7. ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਹਰਿ ਪਾਈਐ ਭਾਈ॥
ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ਹੈ ਪੂਰੈ ਸਤਿਗੁਰਿ ਦੀਆ ਦਿਖਾਈ॥

- ਗੁਰੂ ਅਮਰ ਦਾਸ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 425)

8. ਸੰਤ ਸਨੇਹੀ ਨਾਮ ਹੈ ਨਾਮ ਸਨੇਹੀ ਸੰਤ॥
ਨਾਮ ਸਨੇਹੀ ਸੰਤ ਨਾਮ ਕੋ ਵਹੀ ਮਿਲਾਵੈਂ।
ਵੇ ਹੈਂ ਵਾਕਿਫਕਾਰ ਮਿਲਨ ਕੀ ਰਾਹ ਬਤਾਵੈਂ॥
ਜਪ ਤਪ ਤੀਰਥ ਬਰਤ ਕਰੈ ਬਹੁਤੇਰਾ ਕੋਈ।
ਬਿਨਾ ਵਸੀਲਾ ਸੰਤ ਨਾਮ ਸੇ ਭੇਂਟ ਨ ਹੋਈ॥
ਕੋਟਿਨ ਕਰੈ ਉਪਾਇ ਭਟਕ ਸਗਰੌ ਸੇ ਆਵੈ।
ਸੰਤ ਦੁਵਾਰੇ ਜਾਇ ਨਾਮ ਕੋ ਘਰ ਤਬ ਪਾਵੈ ॥
ਪਲਟੂ ਯਹ ਹੈ ਪ੍ਰਾਨ ਪਰ ਆਦਿ ਸੇਤੀ ਔ ਅੰਤ।
ਸੰਤ ਸਨੇਹੀ ਨਾਮ ਹੈ ਨਾਮ ਸਨੇਹੀ ਸੰਤ॥

-ਪਲਟੂ ਸਾਹਿਬ ਕੀ ਬਾਨੀ, ਭਾਗ 1, ਕੁੰਡਲੀ 14

9. ਜਗ ਮੇਂ ਦੋ ਤਾਰਨ ਕੁੰ ਨੀਕਾ।
ਏਕ ਤੋ ਧਿਆਨ ਗੁਰੂ ਕਾ ਕੀਜੇ ਦੂਜੇ ਨਾਮ ਧਨੀ ਕਾ

(-ਚਰਨਦਾਸ ਕੀ ਬਾਨੀ, ਭਾਗ, 2, ਪੰ. 25)

10.ਜਿਸੁ ਵਖਰ ਕਉ ਲੈਨਿ ਤੂ ਆਇਆ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਸੰਤਨ ਘਰਿ ਪਾਇਆ॥

 -ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 283)

11. ਅੰਧਲਾ ਜੌ ਪਾਇਹਿ, ਤੌ ਸਿਸ਼ ਭਇਓ ਨਿਰੰਧ।
ਰਵਿਦਾਸ ਗੁਰੂ ਗਿਆਨ ਚਾਸ਼ੁ ਬਿਨਾ, ਕਿਮਿ ਮਿਟਈ ਭ੍ਰਮ ਫੰਦ॥

 -ਰਵਿਦਾਸ-ਵਾਣੀ, ਸਾਖੀ 15

12. ਕੋਟਿਨ੍ਹ ਦਾਨ ਜੋ ਪੁੰਨ ਕਰੇ ਔ ਕੋਟਿਨ੍ਹ ਤੀਰਥ ਔਰ ਰਟਨਾ।
ਕੋਟਿਨ੍ਹ ਵੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸੁਨੇ ਔ ਕੋਟਿਨ੍ਹ ਜਾਪ ਜਪੇ ਰਸਨਾ।
ਕੋਟਿਨ੍ਹ ਤਪ ਜੋ ਦਰਪ ਕਰੇ ਔ ਫਿਰੇ ਉਧਾਰ ਤੇਜੇ ਬਸਨਾ।
ਸੰਤ ਸੇ ਨੇਹ ਨਾ ਨਾਮ ਨਿਹਅਖਰ ਮੂਲ ਬਿਨਾ ਕੈਸੇ ਤਰਨਾ।

 -ਦਰੀਆ, ਹਸਤ ਲਿਖਿਤ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ.24

13. ਬਿਨ ਮੁਰਸ਼ਦ ਕਾਮਲ ਬੁਲ੍ਹਿਆ ਤੇਰੀ ਐਵੇਂ ਗਈ ਇਬਾਦਤ ਕੀਤੀ।

 (-ਸਾਈਂ ਬੁਲ੍ਹੇਸ਼ਾਹ, ਪੰ. 315)

14. ਤੁਲਸੀ ਬਿਨਾ ਕਰਮ ਕਿਸੀ ਮੁਰਸ਼ਿਦ ਰਸੀਦਾ ਕੇ॥
ਰਾਹੇ-ਨਜਾਤ ਦੂਰ ਹੈ ਉਸ ਪਾਰ ਦੇਖਨਾ ॥

 -ਤੁਲਸੀ ਸਾਹਿਬ, ਸੰਤਾਂ ਦੀ ਬਾਣੀ, ਪੰ. 304

15. ਸਾਸਤ ਬੇਦ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਭਿ ਸੋਧੇ ਸਭ ਏਕਾ ਬਾਤ ਪੁਕਾਰੀ॥
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੁਕਤਿ ਨ ਕੋਊ ਪਾਵੈ ਮਨਿ ਵੇਖਹੁ ਕਰਿ ਬੀਚਾਰੀ ॥

-ਗੁਰੂ ਅਰਜਨ ਦੇਵ (ਆਦਿ ਗ੍ਰੰਥ, ਪੰ. 495)
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